मरुस्थलीकरण | कारण | प्रभाव | रोकने के उपाय
नमस्कार दोस्तों, हमारे ब्लॉग में आपका स्वागत है। आज हम आपको इस लेख के माध्यम से मरुस्थलीकरण के बारे में बता रहे हैं | मरुस्थलीकरण | कारण | प्रभाव | रोकने के उपाय इसलिए आप इस पोस्ट को पूरा पढ़ के जाये |
प्राकृतिक प्रक्रिया से प्रकृति में विभिन्न प्रकार की संरचना होती है। प्रकृति मानव की संरक्षक एवं सहायक होती है। प्रत्येक प्रक्रिया से प्रकृति विनाश की संरचना नहीं निर्माण करती है। जब तक मानव जनित प्रक्रिया उसमें सहायक न हो। मृदा सजीव प्रकृति की पहली इकाई है। जिसमें विभिन्न प्रकार के भौगोलिक क्षेत्रों का निर्माण होता है। जिनमें से मरुस्थल एक अंश है। जिसका निर्माण प्राकृतिक प्रक्रिया से जोड़ देते है। लेकिन ‘ये निर्माण कुल भौगोलिक संरचना का 10% हिस्सा होता है, मानव क्रियाकलापों का परिणाम है।
प्रकृति पत्थरों में फूल लगा सकती है, पर मरुस्थली मृदा में पौधा नहीं लगाती है, क्योंकि इस प्रक्रिया में मानव अधिक हस्तक्षेप dj रहा है। पहाड़ों, पर्वत श्रृंखलाओं और उनकी उंची-ऊंची चोटियों पर भरपूर हरियाली पायी जाती है। लेकिन मरुस्थल में हरियाली गायब क्यों हो जाती है। इसका सामान्तय: जवाब प्राकृतिक प्रक्रिया को जिम्मेवार घोषित कर देते है, जो कि एक लोजिकल उत्तर नहीं है। मरुस्थलीकरण प्राकृतिक प्रक्रिया कम मानब-जनित प्रक्रिया ज्यादा समीप है। भू-पृष्ठ की सबसे ऊपरी परत जो पेड़ पौधों के उगने o`f} के लिए जीवांश तथा जैव सिस्टम और अजैव सिस्टम को पनपने के लिए खनिजांश प्रदान करती है, वह मृदा कहलाती है। मृदा अपचय प्रक्रिया से मरुस्थलों का निर्माण होता है। पृथ्वी पर 1/3 भाग पर मरुस्थल है।
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मरुस्थल का शाब्दिक अर्थ-
मरुस्थल का शाब्दिक अर्थ-‘”मरु+ स्थल यानि मरे हुए स्थल को मरूस्थल कहते है। पारिस्थितिक तंत्र में मिट्टी पर जैव तंत्र और अजैव तंत्र विकसित होते है परन्तु मरुस्थलीकरण प्रक्रिया से नष्ट हो जाते है। जहां की मृदा जैव तंत्र विकसित नहीं होते है, उनके सारे अवयव जैसे- वनस्पतियां, घास, झाड़ी तंत्र इत्यादि वहां स्थान निर्जन और विरान हो जाते है। जहां मानव सभ्यता, पशुपालन आदि की गति धीमी हो जाती है। मरुस्थल के विकसित होने के लिए मरुस्थलीकरण के अनुकुल परिस्थितियां उत्पन्न होगी तब मरुस्थल का विकास होता है।
अंग्रेजी के DESERT के शाब्दिक अर्थ
D = DRY
E = EMPTY
S = SANDY
E = EXTREME CLIMATE R
R = REPTILES
मरुस्थलीकरण शब्दावली का सबसे पहले उपयोग फ्रांस के विज्ञानी-“अबे बिली’ (Abbeville) ने किया था। मरूस्थल की परिभाषा – पृथ्वी का वह क्षेत्र जहां पर वर्षा और हिमपात का योग अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा बहुत कम होता है, जहां पर वार्षिक औसत वर्षा 25CM से भी कम होती है। UNO द्वारा परिभाषा (1995) – जलवायु परिवर्तन और मानवीय क्रिया कलापों द्वारा ऊसर भूमि, आद्र उसर तथा शुल्क उप- आद्र क्षेत्रों में भूमि अवनयन मरुस्थलीकरण कहते है।
विश्व में मरुस्थलों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा गया है।
(1) शुष्क आण मरूस्थल (2) शीत मरूस्थल
भौतिक दृष्टि से पांच भागों में विभाजित किया गया है।
1. उपोष्ण कटिबंधीय मरूस्थल (SUBTROPICAL DESERT)
2. शीत मरूस्थल (COLD DEBERT)
3. तटीय रेगिस्तान (COASTAL DESERT)
4. ध्रुवीय या टुन्ड्रा मरुस्थल ( POLAR DESERT)
5. अर्न्तदेशीय मरूस्थल (INTERIOR DESERT)
मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया का निर्माण के दो मुख्य कारण है।
1. प्राकृतिक प्रक्रिया
2. मानव-जनित प्रक्रिया
प्राकृतिक प्रक्रिया – मरुस्थल मृदा के अपक्षय क्रिया के क्षरण होता है।
(i) 30-40 उत्तरी अक्षांश व दक्षिण अक्षांश क्षेत्र में सर्वाधिक मरूस्थल पाये जाते है। इस क्षेत्र में ठण्डी हवाएं नीचे उतरती हुई ठण्डी वर्षा नहीं करती है इसी कारण इन अक्षाशों में सर्वाधिक मरुस्थल पाये जाते है।
(ii) पृथ्वी के महाद्वीपीय क्षेत्र के पश्चिम भाग में मरुस्थलों का विकास होने का कारण महासागरीय ठण्डी धाराऐं महाद्वीप के पश्चिम में उत्पन्न होती है, जिसके ठण्डी धाराऐं वर्षा नहीं होने देती है।
जैसे अफ्रीका के पश्चिम में बैंगुला ठण्डी धारा दक्षिण अमेरिका में पेरू की हम्बोल्ट ठण्डी धारा, उत्तरी अमेरिका उत्तरी अमेरिका मे केनारी ठण्डी जल धाराऐं वर्षा के अनुकूल स्थितियों उत्पन्न नहीं होने देती है।
3. वृष्टिछाया प्रदेश या वर्षा का घनत्व महाद्वीप के पश्चिम में पहुंचते पहुंचते कम हो जाता है। हमारी पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है। व्यापारिक पवनें पश्चिम में पहुंचने पर जन की आर्द्रता कम हो जाती है जिसके कारण वर्षा नहीं होती है। वर्षा कम होने के तापमान में वृद्धि हो जाती है जिससे रसायनिक कियाऐं बहुत तेजी से बदलती है। जब थोड़ी बहुत वर्षा होती है तो चटटाने टूट कर चूर्ण में बदल जाती है। तापमान तेज होने से बंवडर चलते है जिससे हल्की मृा उङकर कहीं दूसरी जगह जमा हो जाती है।
तापमान में बदलाव होने पर जलवायु में में बहुत परिवर्तन होते है। मृदा का कवर होता है छोटी-छोटी घास, झाडिया इत्यादि अधिक तापमान से ये सूख जाती है जिससे मृदा का आवरण वायु से क्षरणा होता रहता है जिससे मरूस्थल की उत्पत्ति होती है।
मानव जनित कारण पृथ्वी का जो वर्तमान स्वरूप है, जो पहले ऐसा नहीं था कई बार पृथ्वी पर प्रलय हुआ, मानव-जनित वनों की अंधाधुंध कटाई की शुरूआत ‘होलोसीन’ (लगभग दस हजार साल पहले) युग में हुई थी। और जो आज तक तेज रफ्तार से जारी है।
वनों की अधाधुंध कटाई के कारण पृथ्वी पर आर्द्रता कम होती है तथा तापमान में अधिक का वृद्धि होने से पर्यावरण के घटको में असंतुलन होने से जलवायु में परिवर्तन, भूकम्प और ज्वालापुर सुनामी जैसे घटनाएं होती है जो विश्व मानव के लिए गम्भीर खतरा है। मानव इमारती लकडी, जलाने के लिए अनेकों उपयोग व विकास के चक्कर में पृथ्वी का संतुलन गड़बड़ा जाता है। अवैज्ञानिक कृषि एवं अधिक उत्पादकता का लालच – कृषि के अवैज्ञानिक ढंग अपनाकर कृषक स्वयं मिट्टी के क्षरण को क्षेत्र में समोच्च रेखाओं (contour Lines) से समान जुताई न करने से गलत फसल चक्र अपनाने से तथा गलत तरीके से फसल बोने से मिट्टी का क्षरण बढ़ता रहा है।
मिट्टी के अपरदन के कारण– तेज गति से बढती जनसंख्या एवं राज्य की वन उत्पादों की बहु गुणित बढ़ती मांग के कारण अधिक वनों को काटा जा रहा है इस क्रिया से भूमि के रक्षात्मक तत्व तेजी से घटने वाले वर्षा के जल पानी के साथ घुलकर चले जाते हैं और उस स्थान पर रेगिस्तानीकरण की उत्पात शुरू हो जाती है।
कृषि उत्पादकों की अधिकता के लिए किसान रसायनिक खाद व कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग कर रहे है जो मरुस्थलीकरण के लिए अनुकुल स्थितियां पैदा करते है। जो कीटनाशक है वह मृदा के लिए खतरनाक है इसमें संथेटिक जहर होता है जो मिट्टी घुलकर जल प्रदूषण को बढ़ावा देते है। साथ ही खरपतवार से निपटने के लिए भी खतरनाक रसायन का प्रयोग करते है। जिससे भूमि की ऊपरी परत की सुरक्षा करने वाले घास व झाडियां नष्ट होती जा रही है जिससे भूमि बंजर होती है। झूमिंग कृषि को बढ़ावा नहीं देते है। लग्यूमेंस उत्पन्न करने वाली फसलों का क्षेत्र न्यून हो रहा है जिससे भूमि में नाइट्रोजनीकरण किया नहीं हो पा रही है।
पाताल तोड कुऐं यानि ट्युबेल जिन्ह क्षेत्रों में सिंचाई के साधन नहीं है वहां ये कार्य तेजी से हो रहा है जिससे पानी का दोहन हो रहा है। पानी खारा होने के कारण भूमि लवणीय हो रही है। साथ ही कई जगह ट्यूबेलो में तैलीय पानी निकलता है वो मिट्टी की उर्ववरता को जला देता है| जिससे मृदा का पाउडर बन जाता है वह हवा के साथ उडता रहता है जमीन बंजर बनकर मरूस्थल बनती हैं |
औधोगिकरण – के कारण वातावरण कार्बन के कण अपने आस-पास की जमीन को अनउपजाऊ बना देता है ही ओधोगिक कचरा तथा दूषित जल नदियों में छोड़. देते है जिससे जलप्रदूषण होता है जलीय जीव जन्तु मर जाते है तथा जलीय घास जो नाइड्रोजन के बड़े स्त्रोत होते है वो भी नहीं होने पर मष्ट हो जाते है। ओधोगिक कचरा का सही क्षरण श्रमि में खतरनाक विकिरण पैदा करते है जो भूमि व जीव जन्तु के लिए हानिकारक है। औधोगिकरण व वाहनों के धुऐ मे नाइड्रोजन व सल्फेइड के ऑक्साइड होते है जो वर्षा के जलवाष्प से क्रिया करके तेजाब यानि हानिकारक अम्ल उत्पन्न करते है जो वर्षा के साथ जमीन पर गिरता वह अम्लीय वर्षा कहलाती है। अम्लीय वर्षा फसल व घास झाडियों को जला देते है। जिससे भी जमीन बंजर बन जाती है।
यांत्रिक युग में यंत्रों का अधिक उपयोग जमीन की आर्द्रता को कम करता है तथा जमीन कठोर होने से ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है जिससे जमीन पॉली नहीं होने से फसलों में न्यूनता आती है जिससे अकाल व भूखमरी को बढ़ावा मिलता है लोग भरमण कर स्थान छोड़ने से बंजर की स्थिति पैदा होती है कई सभ्यताएं नष्ट हुई है उनको अधिकांश भाग मरुस्थलों व नदी घाटियों में मिलता है है जिसका कारण मानव के तेज रफ्तार जे जीवनशैली जिम्मेवार है। स्वयं मेहनत नहीं करने से यंत्रो का उपयोग करते है यह प्रकृति के विरुद्ध है। विकास प्रकृति के अनुरूप ही हो जिससे पृथ्वी पर मानव जीवन बच सके। प्रकृति के विरुद्ध विकास विनाश का रूप होता है जो बड़े-बड़े उष्ण मरूस्थल व शीत मरुस्थल इनके जीते जागते उदाहरण है जिससे कई देशों की जनसंख्य विलुप्त होने कगार पर है।
अति पशुचारण– जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है वहां के लोगों के आजीविका का साधन पशुधन है। इन क्षेत्रों के लोग आजीविका के अनियंत्रित रूप से भेड़, बकरियां तथा अन्य पशुओं को चराने के लिए परती भूमि पर चराते ये पशु घास को अंतिम बिंदू तक चर लेते है जिससे मृदा का आवरण कमजोर हो जाता है तथा नमी में भी कमी आ जाती है। जिससे तेज वर्षा से मिट्टी घुलकर बेह जाती है तथा उर्वरक क्षमता कम हो जाती है तेज हवाओं से मृदा के पकड़ कमज़ोर होने अपरदन होता है जिससे मिट्टी का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जमा हो जाती है
अति पशुचारण अवस्थळीकरण का प्रमुख कारण अतिपशुचारण है।
मरुस्थलीकरण के प्रभाव
1. पर्यावरणीय प्रभाव (जलवायु प्रभाव)
(i) वनों का विनाश
(ii) मृदा का निम्नीकरण
(iii) मृदा अपक्षय व क्षरण
(iv) प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि
(V) जैव विविधता को हानियाँ
2. आर्थिक प्रभाव
(i) प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि से जन-धन हानि
(ii) बंजर भूमि से भूखमरी की समस्या
(3) देश अर्थव्यवस्था में हास
मरुस्थलीकरण के रोकथाम व उपाय
मरुस्थलीकरण के विस्तार को रोकने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अनेक योजनाऐं एवं कार्यक्रम चलाए गए जिनमें से कुछ बिन्दुओं का सुझाव दिये गये।
1. ‘जनसंख्या वृद्धि नियंत्रित करना प्रमुख उपाय है। सारे बिन्दु इनके ईर्द गिर्द ही संचलन करते है। बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण उत्पादकता की दर में वृद्धि से वनों की कटाई, कृषि में अवैज्ञानिक तरीके या शोर्टकट तरीके से भरण-पोषण की लालसा भूमि को बंजर बनना में सहयोग करती है, पानी का दोहन करने से पानी की कमी एवं नमी में कमी होती है। यहां ड्रिप सिंचाई, फव्वारे द्वारा सिचाई करना ‘ बढ़ती जनसंख्या, चढ़ता बुखार देश के लिए खस्तखतरनाक है।”
2. वनीकरण को प्रोत्साहन करना।
3. कृषि करने में जहरीले रासायनिक उर्वरकों के स्थान जगह जहरीले जैविक उर्वरको का प्रयोग करना
4. फसल बोने का सही तरीका अपनाना।
5. सिचाई के नये और वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग जैसे बूँद-बूँद सिचांई, स्प्रिंकलर सिंचाई आदि।
6. मरुस्थलीकरण के बारे में लोगों में जागरुकता लाना।
7. मरुस्थल विकास कार्यक्रम – यह सूखे के प्रभाव को कम करने तथा रेगिस्तानी क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधन को फिर से जीवित करने के लिए शुरू किया तथा राजस्थान, गुजरात हरियाणा के गर्म रेगिस्थानी क्षेत्र और जम्मू कश्मीर व हिमाचल प्रदेश के ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्र के लिए शुरू किया गया था।
8. कमांड एरिया डेवलमेंट’ इसे 1989-90 ई. में शुरु किया तथा इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के लिए प्राकृतिक संसाधनों का विकास करना था, इसे प्रधानमंत्री कृषि सिचाई योजना के 2015-16, 2019-20 तक रखा गया, जिससे नीति आयोग द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।
9. अवैध खनन गतिविधियों पर रोक तथा कॉर्पोरेट कंम्पनियों को कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी के तहत वृक्षों को लगाने का कार्य सौंपा जाना चाहिये |
10. चारा उत्पादन योजना– इस प्रयोजना को सन् 2010 ई० में के आरम्भ की गई। इस प्रयोजना का प्रमुख ध्येय बंजर घास मैदानों में सुधार करना। इसे डेयरी द्वारा संचालित किया जाता है। है। जिसमें छिंकी कुरा घास, धामण खस का उत्पादन करना है |
11. चीन मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए बहुत ही, कारगर योजना बनायी जो वहां के मरुस्थलीकरण को रोकने में कारगर हुई चीन सरकार प्रत्येक नागरिक को भागीदार बनाया, प्रत्येक वर्ष प्रत्येक नागरिक चीनार का एक वृक्ष लगायेगा जो वहां नही जा सकता ऑनलाईन अपना सहयोग देकर लगा सकता है। यहां पहले अनेक प्रकार के पेड़ लगायें जो जलवायु के अनुकुल हो हर ऊंचाई के पेड़ लगाये जिससे भूमि का आवरण मजबूत हुआ फिर घास, झाडियां तथा बेलदार पौधे लगाये, जो मृदा अपरदन को रोक सके। फिर फ्रांस से रेक्स हेयर रेबिट (Rex Harr Rabbit) प्रजाति के बड़ी मात्रा में खरगोश लाये जो मरुस्थल में छोड़ दिये ये खरगोश घास की जड़े खाते है तो मिट्टी को नीचे से खोदकर जड़े खाते है जिससे वह पूरे क्षेत्र की मिट्टी को पलट दिया जिससे नमी व ऑक्सीजन जमीन के अंदर जाने से मुलायमता आती है। फिर वे खाद करते है उनमें घास के बीज बिखरते रहते है जिससे छोटी घास अपने आप पैदा होती है जिससे प्रदेश हरा भरा हो गया फिर किसानों का वहां खरगोश पालन, सब्जी उत्पादन आदि कार्य के लिए लगा दिया आज वह हरा भरा मरुस्थल होता जा रहा है। ये तकनीकी भारत के थार में अपनानी चाहिए |
विश्व में मरुस्थलों का विस्तार हो रहा है जिसमें एशिया में सबसे ज्यादा वृद्धि हो रही है।
1. संसार का सबसे बड़ा मरूस्थल अंटाल अटलांटिक शीत मरूस्थल है।
2. विश्व का सबसे शुष्क व ऊष्ण मरुस्थल सहारा मरुस्थल है। जिसकी सीमा ग्याहर देशों से लगती है।
3. विश्व का सबसे छोटा मरूस्थल कार क्रास डेजर्ट कनाडा के यूकोन क्षेत्र में स्थित है जिसका क्षेत्र एक वर्ग मील या 640 हेक्टयर है। ये 4500 साल पूर्व बना।
4. संसार का सबसे प्राचीन मरूस्थल आटाकामा चिली, नामित नामिबिया में स्थित है। आटाकामा मरुस्थल में कई जगह वर्षा का सिद्धान्त ही नही है। कई क्षेत्र ऐसे जहां मानव सांस लेने पर हो जाती है वहां नाइट्रेट के भण्डार है।
5. सबसे युवा व नया मरूस्थल थार का मरूस्थल है। जिसका 85% भाग भारत में तथा 15% भाग पाकिस्तान में है। जो भाग पाकिस्तान में है उन्हे चोलिस्तान कहते हैं। थार मरूस्थल का क्षेत्र 2 लाख वर्ग किमी हैं, जो गुजरात, राजस्थान, पंजाब तथा हरियाणा में फैला हुआ है।
6. दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा मरूस्थल थार का मरूस्थल है। ये मानव-जनित प्रक्रिया का मरूस्थल है।
भारत में लगभग 14 मरूस्थल स्थित है।
सबसे बड़ा मरूस्थल थार मरुस्थल है तथा सबसे छोटा मरुस्थल कमिनाड तमिलनाडू राज्य में अभुकुड़ी जिले में स्थित है। ये लालरंग मरुस्थल या’ ‘थेरी मरूस्थल कहलाता है। ‘थेरी’ का मतलब तमिल ‘भाषा में ‘टिब्बा’ होता है। ये 2.6 मिलियन वर्ष पहले बना है।
भारतीय मरुस्थलों के नाम =)
(i) थार, राजस्थान
(ii) कच्छ की खाड़ी, गुजरात
(iii) स्पीति घाटी, हिमालय
(iv) नुब्रा घाटी, लदाख
(v) लदाख घाटी, लद्दाख
(vi) दक्कन की क्षुपभूमि, मध्य एवं दक्षिण भारत
वैश्विक स्तर पर मरुस्थलीकरण के रोकथाम के लिए एकमा= (UNITED NATIONS, FRAME Work CONVETION ON CLT MATE. CHANGE) जो मरुस्थलीकरण की चुनौती से निपटने के लिये अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों के बारे में लोगों में जागरुकता बढ़ाने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 17 जून को विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस मनाते है ये UNCCD के फ्रांस में पेरिस समझौता 17 जून 1994 में आयोजित किया इसमें तय किया।
भारत में मरुस्थलीकरण के लिए आम नागरिक को भागीदाj बना कर राष्ट्रीय कार्यक्रम घोषित करके गम्भीरता से रोकथाम के लिए प्रयास करेंगे तथा जागरुकता बढ़ाने पर जोर देना होगा।
भारत सरकार 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर खराब भwfe को पुन: उपजाऊ बनाने के लिए विशेष कार्य कर रहा है | देश की भूमि क्षरण तटस्थता (LDN सतत विकास लक्ष्य 15.3) पर अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे है।
सम्पूर्ण विश्व अपने-अपने स्तर पर्यावरण सुरक्षा को सुरक्षित करना होगा, वायु प्रदूषण जल प्रदूषण, तापमान वृद्धि तथा oनो की कटाई की रोकथाम करके पृथ्वी के वातावरण को सुरक्षित करना होगा।
अंतिम शब्द
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